mp gk

शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

मध्यप्रदेश की जन - जातियाँ

 
"दि शेड्यूल्ड परियाज एंड ट्राइब्स कमीशन" ने जनजातियों को चार वर्गों से बांटा है। इनमें से सबसे अविकसित जनजातियों के रहवासी क्षेत्रों को "शेड्यूल्ड एरिया" या "अनुसूचित क्षेत्र" घोषित कर दिया गया है। मध्यप्रदेश में सात विशेषʔपिछड़ी जनजातियां हैं। इनका रहन-सहन, खान-पान, आर्थिक स्थिति, शिक्षा का प्रतिशत जनजातियों के प्रादेशिक औसत से कम है।
इस कारण भारत सरकार ने इन्हें "विशेष पिछड़ी जनजातियों" के वर्ग में रखा है

  1. बैगा (बैगायक क्षेत्र, मंडला जिला)
  2. भारिया (पाताल कोट क्षेत्र, छिन्दवाड़ा जिला)
  3. कोरबा (हिल कोरबा, छत्तीसगढ़)
  4. कमार (मुख्य रूप से रायपुर जिला)
  5. अबूझमाड़िया (बस्तर जिला)
  6. सहरिया (ग्वालियर संभाग) 
उपर्युक्त जनजातियों अपने विशिष्ट क्षेत्रों में ही "विशेष पिछड़ी जातियों के रूप में मान्य हैं।" इन जनजातियों का रहवासी क्षेत्र "अनुसूचित क्षेत्र है, जिसके विकास की विशिष्ट योजनाएं हैं।

.बैगा (बैगायक क्षेत्र, मंडला जिला)
 बैगा आदिवासी मध्यप्रदेश के मुख्यत: तीन जिलों-मंडला, शहडोल एवं बालाघाट में पाए जाते हैं। इस दृष्टि से बैगा मध्यप्रदेश के मूल आदिवासी भी कहे जा सकते हैं। बैगा शब्द अनेकार्थी है। बैगा जाति विशेष का सूचक होने के साथ ही अधिकांश मध्यप्रदेश में "गुनिया" और "ओझा" का भी पर्याय है।
बैगा लोगों को इसी आधार पर गलती से गोंड भी समझ लिया जाता है जबकि एक ही भौगोलिक क्षेत्र यह सही है कि बैगा अधिकांशत: गुनिया और ओझा होते हैं किन्तु ऐसा नहीं है कि गुनिया और ओझा अनके वितरण क्षेत्र में बैगा जाति के ही पाए जाते हैं।में पायी जाने वाली ये दोनों जातियां क्रमश: कोल और द्रविड़ जनजाति समूहों से सम्बद्ध हैं। इन दोनों जातियों में विवाह संबंध होते हैं क्योंकि दोनों जातियां हजारों वर्षों से साथ-साथ रह रही हैं। गोंडों के समान ही बैगाओं में भी बहुत से सामाजिक संस्तर है। राजगोंडों के समान ही बैगाओं में भी विंझवार बड़े जमींदार हैं और उन्हें राजवंशी होने की महत्ता प्राप्त हैं। मंडला में बैगाओं का एक छोटा समूह भरिया बैगा कहलाता है। भारिया बैगाओं को हिन्दू पुरोहितों के समकक्ष ही स्थान प्राप्त है। ये हिन्दू देवताओं की ही पूजा सम्पन्न करते हैं, आदिवासी देवताओं की नहीं। मंडला जमीन की सीमा संबंधी विवाद का बैगाओं द्वारा किया गया निपटारा गोंडों को मान्य होता है।
स्मिल और हीरालाल (1915) बैगाओं को छोटा नागपुर की आदि जनजाति बुइयाँ की मध्यप्रदेश शाखा, जिसे बाद में बैगा कहा जाने लगा, मानते हैं। जहां तक शाब्दिक अर्थ का प्रश्न है भुईयां (भुई, पृथ्वी) और भूमिज (भूमि-पृथ्वी) समानार्थी हैं एवं "भूमि" से संबंधित अर्थ बोध कराते हैं। यह मुमकिन है कि मध्यप्रदेश के इन आदि बांशन्दों को बाद में आए हुए गोंडों ने बैगा को आदरास्पद स्थान दे दिया है।
इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भुईयां की इस (बैगा) शाखा ने छोटा नागपुर से सर्वप्रथम छत्तीसगढ़ में प्रवेश किया हो और कालान्तर में अन्य आदिवासियों के द्वारा ये मंडला और बालाघाट के दुर्गम वनों में खदेड़ दिए गए हों। मंडला जिले का "बैगायक" क्षेत्र आज भी सघन वनों से पूर्ण है। इस क्षेत्र के बैगा आज भी अति जंगली जीवन बिता रहे हैं। इनकी तुलना बस्तर के माड़िया लोगों से की जाती है। मंडला के सघन वनों में रहने वाले बैगाओं की बोली में पुरानी छत्तीसगढ़ी का प्रभाव है। बालाघाट के बैगाओं की बोली में भी छत्तीसगढ़ी का प्रभाव स्वाभाविक रूप से देखने को मिलता है।
ग्रिथर्सन का यह कहना अर्थ रखता है कि पहले बैगा अधिकांशत: छत्तीसगढ़ के मैदान में फैले थे और वहां से ही ये हैहयवंशी राजपूतों द्वारा दुर्गम क्षेत्रों की ओर भगाए गए। भुइयां के अतिरिक्त, भनिया लोगों का भी संबंध बैगाओं से जोड़ा जाता है। बैगाओं की एक शाखा मैना राजवंश ने किसी समय उड़ीसा में महानदी के दक्षिण में बिलहईगढ़ क्षेत्र पर शासन किया था। मंडला में ये कहीं पर "भुजिया" कहलाते हैं जो "भुइयाँ" का ही तत्सम शब्द है।
बिंझवार लगभग पूरी तौर से गैर आदिवासी हो चुके हैं। वे गोमांस नही खाते बिंझवार, नरोटिया और भारोटिया में रोटी-बेटी संबंध प्रचलित है, किन्तु इसमें स्थान-भेद से परिवर्तन पाए जाते हैं, जैसे साथ में भोजन करने की मनाही है, अर्थात तीनों में रोटी-बेटी के संबंधों का सीमित प्रचलन है। बालाघट में ऐसा कोई बंधन नहीं है। सभी उपजातियों में गोंड के प्रचलित गोत्र नाम अपितु सामान्य नाम भी गोंडों और बैगाओं में समान पाए जाते हैं। यह समानता दोनों आदिवासी जातियों के साथ-साथ रहने के कारण ही पायी जाती है। पुराने जमाने में दोनों आदिवासी जातियों में विवाह आम बात थी। एक गोंड युवती के बैगा से विवाह करने पर वह समान् स्वीकृत बैगा महिला मान ली जाती थी, किन्तु बिंझवार, भारोदिया और नरोटिया अब स्वयं अन्य बैगा उपजातियों में भी विवाह नहीं करते अस्तु गोंडों से विवाह करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यह तथ्य हमें राजगोंडों और राजवंशी गोंडों में भी मिलता है। दरअसल विकास की प्रक्रिया में आदिवासी जातियों में स्वाभाविक रूप से सामाजिक स्तर बन गए भले ही इसके पीछे धार्मिक बदलाव उतना नहीं जितना आर्थिक बदलाव है।
बैगा कृष्णवर्णीय और रूक्ष (कांतिहीन) शरीर वाले होते हैं। सिर के बालों को काटने का रिवाज नहीं है। कभी-कभी कपाल के ऊपर के बाल कुछ मात्रा में अवश्य काट लिए जाते हैं। बालों को इकट्ठा कर पीछे की ओर चोटी डाल ली जाती है। ये वर्ष में गिने चुने अवसरों पर ही स्नान करते हैं। बैगा युवतियाँ आकर्षक होती हैं। उनके चेहरे और आंखों की बनावट सुन्दर कही जा सकती है। इन्हें अन्य आदिवासी स्त्रियों से अलग पहचाना जा सकता है। यद्यपि गोंड और बैगा जंगलों में साथ रहते हैं, तथापि गोंडों में द्रविड़ विशेषताएं और बैगाओं में मुंडा विशेषताएं परिलक्षित होती हैं।

अधिवास
बैगा लोग सघन वन प्रान्तर में रहने के आदी हैं। उनके गांव छोटे होते हैं। कुछ बड़े गांव भी पाए जाते हैं जिनमें जनसंख्या 1000 या इससे अधिक होती है। ऐसे गांव अंग्रेजों के जमाने में बसाए गए थे। यह "फारेस्ट विलेज" (वन्य ग्राम) हैं। इनके बसाए जाने के पीछे उद्देश्य यह था कि अंग्रेज सरकार को जंगल कटवाने के काम के लिए लगभग मुफ्त की मजदूरी में श्रमिक मिल जाएं।
बैगा लोगों का मकान आठ से तेरह फुट तक चौड़ा एवं बीस से तीस फुट तक लम्बा होता है। दीवारें बांस की होती हैं जिन पर मिट्टी की छपाई कर दी जाती है। दरवाजा होता है पर खिड़की नहीं। खपरैल की जगह घास-फूस इस्तेमाल होता है। दरवाजों में किवाड़ नहीं लगाए जाते और और वह इतना छोटा होता है कि बिना झुके उसमें प्रवेश करना संभव नहीं। गांव के सभी मकान एक दूसरे से सटाकर बनाए जाते हैं। मकानों में रसोई घर काफी बड़ा होता है जो कि शयनकक्ष का भी काम देता है। बैगाओं के गांव सघन वनों के बीच में चौरस जमीन खोजकर बसा लिए जाते हैं, गांव की सीमा को अत्यंत साफ रखा जाता है। गांव की सीमा के बाहर मरघट और उसके समीप टोने-टोटकों का स्थान भी पाया जाता है। प्रतयेक गांव में बाहर से आने वाले लोगों को ठहराने के लिए एक पट्टी अलग बना दी जाती है।
बैगाओं की बस्तियां दिन के उजाले में भी सायं-सायं करती रहती हैं। क्योंकि वयस्क बैगा जंगल जा चुके होते हैं। केवल छोटे बच्चे घर के बाहर खेलते रहते हैं, शेर, तेन्दुए आदि का इनको कोई भय नहीं होता। शेर को ये अपना अनुज मानते हैं।
मंडला जिले में कहा जाता है कि बैगा मात्र ललकार से शेर की डाढ़ "बांध" सकते हैं इसलिए शेर बैगाओं को कभी नहीं छोड़ता और डाढ़ बांध रहने की हालत में शेर भूखा मर जाता है। इस मान्यता में सत्य की मात्रा बहुत कम है।
भोजन
बैगा मांस, मोटे अनाज एवं कंदमूल फलों का भोजन करते हैं। अधिक उन्नत बैगा गोमांस नहीं खाते। उत्सवों के समय सुअर की बलि देने की प्रथा अभी भी विद्यमान है। पहले एक बर्तन में गरम पानी भर लिया जाता है, फिर उसमें एक सुअर डाल दिया जाता है। जब तक वह चीखता-चिल्लाता रहता है, स्त्रियां गीत गाती रहती है अंत में कुल्हाड़ी से उसका काम तमाम कर दिया जाता है। जंगल के पशुओं का मांस शिकार द्वारा प्राप्त करते हैं, किन्तु उनमें चूहों के मांस के प्रति विशेष रूचि पाई जाती है। चूहों को भूनकर खाया जाता है। सर्प और मेढ़कों का भी वे भोजन करते हैं।
जंगली जानवरों का आखेट और मछली मारना बैगा युवकों का प्रिय मनोरंजन है। बैगा लोगों का पहला भोजन "बासी" से स्पष्ट है बचा हुआ भोजन। "पेज" होता है कोदो और मक्के का घेल जिसमें स्वाद के लिए नमक डाल दिया जाता है। भात-भाजी का भोजन बियारी कहलाता है।
अनाजों में ज्वार, बाजरा, मक्का, राई और शमतिला इनकी कृषि कृत उपजें एवं भोजन का महत्वपूर्ण भाग हैं। मक्का, चावल, कुटकी या ज्वार से वे पेज भी बनाते हैं, जो काफी पतली होती है। मेहमान नवाजी में पेज सबसे पहले दी जाती है, तेदू या आम के पत्तों की चुंगी बनाकर उसमें तम्बाकू भरकर धूम्रपान किया जाता है। बैगा लोगों को जंगली बूटियों की पहचान होती है ओर उनको पाने के लिए वे बड़ी कठिनाई पार करने को तैयार रहते हैं।
कृषि
बैगा अपनी कृषि में हल का प्रयोग नहीं करते थे क्योंकि उनकी मान्यता थी कि हल से धरती माँ की छाती पर घाव होगा और उसे पीड़ा होगी। इनकी कृषि "बैवार कृषि" है। वन की समतल भूमि के वृक्षों को काटकर गिरा दिया जाता है। ग्रीष्म ऋ़तु में वृक्षों के सूखने पर आग लगा दी जाती है। आग के बुझने पर राख में कोदों, कुटकी, चावल, ज्वार, बाजरा, मक्का या अन्य किसी मोटे अनाज के बीजों को डाल दिया जाता है। वर्षा होने पर उनमें अंकुर निकल आते हैं। फसल के तैयार हो जाने पर उसी जगह गाह-उड़ा कर अनाज तैयार कर लिया जाता है। गाहनी में बैलों की जगह औरतें ही काम करती है और वे ही पैरों या लकड़ी के मुगदर से अनाज को कूट लेती हैं। चूंकि बीस प्रतिशत आमदानी से गुजारा नहीं होता इसलिए बैगा लोगों ने कृषि अपनाई। यह उनके लिए परिस्थिति से समझौता है। फसलों में सबसे अधिक कोदो, चना, राई और रमतिल बोया जाता है। चूंकि बैगा खेती करने को अधिक उत्सुक नहीं रहते, इसलिए कृषि सामग्री का अभाव भी एक समस्या है, जिसने "पोदा" प्रथा को जन्म दे दिया है। अनेकों बैगा बिना बैलों के ही कृषि करते हैं। फलस्वरूप उन्हें बैल उधार लेने पड़ते हैं। कभी-कभी बैल जोड़ी तो होती है पर मजदूर नहीं मिलते। ऐसी परिस्थिति में बैल वाला कृषक एक दिन के लिए अपनी बैल जोड़ी दे देता है। इसके बदले लेने वाला कृषक पांच दिनों के लिए मजदूर की व्यवस्था कर देता है।
वस्त्राभुषण
बैगा पुरूष हाथ में कड़के के प्रकार का आभूषण पहनते हैं। स्त्रियां केवल विवाह के अवसर पर ही लकड़ी की खड़ाऊनुमा वस्तु धारण करती हैं। सिर के बालों पर फंदरी का भी आभूषण इस्तेमाल किया जाता है। बैगा महिलाएं नाक में कोई भी आभूषण नहीं पहनतीं। ज्ञातव्य है कि भारत में मुसलमानों के आने के पहले तक भारतीय महिलाएं नाक में कोई आभूषण धारण नहीं करतीं थी। यही कारण है कि इस युग के पूर्व तक के भारतीय मूर्ति-शिल्प में जहाँ दूसरे आभूषण का नामोनिशान नहीं मिलता। मुसलमानों ने मध्य एशिया के बर्बर राजाओं के गुलामों को नकेल डाले देखा था। अत: उन्होंने इसे कलात्मक रूप दे दिया। बैगा लोगों में नासिका भूषण की कमी यह बतलाती है कि ये लोग शेष समाज से पिछले लगभग एक हजार वर्षों से कटे हुए हैं।
शिकार
बैगा लोग चूंकि सघन वनों में निवास करते हैं, अत: उनका कुशल शिकारी होना स्वाभाविक ही है। ये धनुष बाण के द्वारा जंगली पशु-पक्षियों का शिकार के लिए गांव के सारे जवान पुरूष एक ही साथ निकल जाते हैं। जंगल में जाकर वे अलग-अलग टोलियों में बंटकर जानवरों का हांका लगाते हैं। हांका लगाते समय वे झाड़ियों में छिप जाते हैं। कई बार वे अपने शरीर से झाड़िया बांध लेते हैं, ताकि शिकार को भ्रम हो जाए। बैगा निशाना साधने में अत्यंत कुशल होते हैं। उनके अचूक निशाने से छोड़ा गया तीर जानवरों को या तुरन्त मार डालता है या घायल कर देता है। घायल पशु का वे सावधानी से पीछा करते रहते हैं। बैगा लोग विष बुझे तीरों, फंदों आदि का भी प्रयोग करते हैं। पक्षियों को पकड़ने के लिए अगर और बड़ के दूध का लेप उन डालियों टहनियों एवं पत्तों पर कर दिया जाता है जहां पक्षी आदतन बैठा करते हैं उस पक्षी को आसानी से मार गिराते हैं। ये एक विचित्र फंदा जिसे "मलंदा" कहते हैं, तैयार करते हैं। इसमें वृक्ष की टहनी को उपयोग में लाया जाता है। इस फंदे में सांभर और कभी-कभी वनराज तक फंस जाता है। यह इतना मजबूत होता है कि एक बार फंस जाने पर शक्तिशाली जानवर भी छूटकर नहीं जा पाते हैं। कभी-कभी बेचारे शिकारी का भी शिकार हो जाता है।
बैगा शेर को अपना छोटा भाई समझते हैं। कहा जाता है कि जब उसकी मंत्रों से डाढ़ नहीं बंधती तो वह आदमखोर हो जाता है। आदमखोर के द्वारा मारे जाने पर बैगा ओझा मृत्यु स्थल पर जाकर रक्त मिट्टी को सानकर एक शंकु बनाता है। और फिर शेर की नकल करता हुआ चलता है और आगे बढ़कर शंकु को अपने दांतों से काटता है। तब चारों ओर खेड़े हुए लोग उसे (छद्मवेषी शेर को) लाठियों से झूठ-मूठ मारते हैं और छद्म शेर छद्म मृत्यु का वरण कर लेता है। उसके बाद सुअर की बलि चढ़ाई जाती है।
समाज और अर्थव्यवस्था
बैगा सामाजिक दृष्टि से धुरगोडों के समान ही है। विधवा-विवाह, चमसेना इत्यादि प्रथाएं पायी जाती हैं। बैगा लोगों का जीवन अत्यंत सादा होता। आर्थिक सम्पन्नता की आकांक्षाए लगभग नहीं है। बाजार गया बैगा पैसे को जल्दी से जल्दी खर्च कर घर लोटना पसंद करता है। विवाह के अवसर पर वह हाथी पर बैठना अवश्य पसंद करता है, परन्तु आज की दरिद्रावस्था में वह खटिया का हाथी बनाकर आत्मसंतोष करता है। बैगा साज वृक्ष की पूजा करते हैं यदि पूजा करते समय उनके हाथ में साज के पत्ते दे दिए जाएं और उनसे कोई बात पूछी जाए तो वे कभी झूठ नहीं बोलते। गुनिया के गुणों पर उनकी अंधश्रद्धा पाई जाती है। वे अनेक देवी-देवताओं को भी मानते हैं। उनके दुल्हादेव और बड़ादेवा को यदि एक मुर्गी और एक बोतल दारू की पूजा चाहिए तो भवानी माता को चाहिए पूरा एक बकरा और दारू की बोतल। बाघेश्वरी और नागवंशी संतुष्ट होते हैं, एक सुअर और दो बोतल दारू से तो अजादी, मुर्गी और दो बोतल दारू से संतुश्ट हो जाती है। देवी-देवताओं की पूजा पुरूष ही करते हैं, स्त्रियां नहीं, फिर चाहे वे "खेर महारानी" ही क्यों न हो। बैगा किसी भी बंधन को पंसद नहीं करते फिर चाहे वह सम्पत्ति का बंधन ही क्यों न हो। यही कारण है कि वे जमीन के स्वामित्व का दायित्व आज भी नहीं निभा पाते हैं। लघु वनोपजों पर उनकी अर्थ व्यवस्था आज भी बहुत अधिक आश्रित है। बैगा लोग झाड़ फूंककर बीमारियों और सर्पदंश का इलाज करते हैं, परन्तु महाजनी का विषधर उन्हें सदियों से डस रहा है। जिसका इलाज न उनके स्वयं के मंत्रों में हैं और न ही हमारे आत्म केन्द्रित समाज के पास।

.भारिया (पाताल कोट क्षेत्र, छिन्दवाड़ा जिला)

भारिया जनजाति का विस्तार क्षेत्र मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा, सिवनी, मण्डला और सरगुजा जिले हैं। इस अपेक्षाकृत बड़े भाग में फैली जनजाति का एक छोटा सा समूह छिंदवाड़ा जिले के पातालकोट नामक स्थान में सदियों से रह रहा हैं। पातालकोट स्थल को देखकर ही समझा जा सकता है कि यह वह स्थान है जहां समय रूका हुआ सा प्रतीत होता है। इस क्षेत्र के निवासी शेष दुनिया से अलग-थलग एक ऐसा जीवन जी रहे हैं जिसमें उनकी अपनी मान्यताएं हैं, संस्कृति और अर्थ-व्यवस्था है, जिसमें बाहर के लोग कभी-कभार पहुंचते रहते हैं किन्तु इन्हें यहां के निवासियों से कुछ खास लेना-देना नहीं। पातालकोट का शाब्दिक अर्थ है पाताल को घेरने वाला पर्वत या किला। यह नाम बाहरी दुनिया के लोगों ने छिंदवाड़ा के एक ऐसे स्थान को दिया है जिसके चारों ओर तीव्र ढाल वाली पहाड़ियां हैं। इन वृत्ताकार पहाड़ियों ने मानों सचमुच ही एक दुर्ग का रूप रख लिया है। इस अगम्य स्थल में विरले लोग ही जाते हैं। ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र में एक ही जनजाति रहती है। वरन सच तो यह है कि पातालकोट 90 प्रतिशत आबादी भारिया जनजाति की है, शेष 10 प्रतिशत में दूसरे आदिवासी हैं। इस स्थल की दुर्गमता ने ही यहां आदिवासी जीवन और संस्कृति को यथावत रखने में सहायता दी है।
1981 की जनगणना में पातालकोट में भारिया को "जंगलियों के भी जंगली" कहा गया था। भारिया शब्द का वास्तविक अर्थ ज्ञान नहीं है। कुछ लोगों का मत है कि अज्ञातवास में जब कौरवों के गुप्तचर, पांडवों को ढूंढ रहे थे तब अर्जुन ने अभिमंत्रित र्भरूघास के शस्त्र देकर इन्हें गुप्तचरों से लड़ने को भेज दिया। इन्होंने विजय प्राप्त की और बत से इन्हें भारिया नाम मिला। इस किंवदन्ती में कितनी सच्चाई है, यह तो खोज की ही बात है।
1881 से 1981 तक की शताब्दी में भारिया जनजाति के इस समूह में मामूली फर्क आया है, वह भी तब जबकि पिछले पच्चीस वर्षों से मध्यप्रदेश सरकार ने इस क्षेत्र की उन्नति के लिए लगातार प्रयास किए। यहां तक कि पूरे पातालकोट क्षेत्र को विशेष पिछड़ा घोषित कर दिया गया है।
पातालकोट की कृषि आदिम स्थाई कृषि है। कुल कृषि भूमि का 15 प्रतिशत खरीफ फसलों के अन्तर्गत है। प्रमुख फसलें धान, कोदो और कुटकी हैं। इन फसलों की कटाई अक्टूबर तक हो जाती है। यद्यपि रबी यहां की फसल नहीं है किन्तु घर के आसपास के खाली क्षेत्र में चना बो दिया जाता है। आदिवासियों के अनुसार चने की यह छोटी फसलें भी अत्यंत श्रम साध्य हैं, क्योंकि पातालकोट में बंदरों का उत्पात काफी है और मौका पाते ही वे फसल को तबाह करने से नहीं चूकते। गेहूं भी बोया जाता है पर इसका उत्पादन नगण्य है। पातालकोट में गेहूं और चना नगद फसलें हैं क्योंकि इस पूरे उत्पाद को बेच दिया जाता है ताकि कुछ नकद हाथ लग सके तथा अन्य जरूरत की वस्तुएं खरीदी जा सकें।
कृषि के उपरान्त खेतों में मजदूरी करना प्रमुख कार्य है। पातालकोट के आसपास गोंडों के खेत फैले हुए हैं। भारिया पातालकोट से आकर इनके खेतों में भी काम करते हैं। एक अनुमान के अनुसार भारिया, गोंडों के खेतों 60-70 दिनों से अधिक कार्य नहीं करते। शासकीय विकास कार्यों में भी वे मजदूरी का काम कर लेते हैं

कोरबा (हिल कोरबा, छत्तीसगढ़)

कोल प्रजाति की जनजाति मध्यप्रदेश में छोटा नागपुर से ही आयी है। यह बिलासपुर, रायगढ़ और सरगुजा जिला में प्रमुख रूप से पायी जाती है। डालटन उनके बारे में लिखता है, असुरों के साथ मिश्रित तथा उनसे बहुत अलग भी नहीं, सिवा इसके कि ये यहां अधिकतर कृषक हैं। वे वहां के धातु गलाने का काम करने वाले लोग हैं। हम सबसे पहले कोरबा से मिलते हैं जो कि उक्त नाम के अन्तर्गत "कालेग्मिन श्रृंखला" की टूटी हुई कड़ी है। यही जनजाति पश्चिम की ओर सरगुजा, रायपुर तथा पालाभाड़ा पठार पर से होती हुई अधिक संगठित जनजाति कुर तथा रीवा के मुसाइयों तक पहुंचती है। सेन्ट्रल प्राविन्स में वह विन्ध्याचल से सतपुड़ा तक पहुंच जाती है।
बहुत ही पिछड़ी जनजातियों में से एक है। यह जनजाति उत्तरप्रदेश के मिर्जापुर, मध्यप्रदेश के जशपुर और सरगुजा और बिहार के पलामू जिलों में मुख्य रूप से पायी जाती है। उत्तरप्रदेश के कोरबा का मजूमदार और पलामू के कोरबा का सण्डवार नामक विद्वानों ने विस्तृत अध्ययन किया था। पहाड़ों में रहने वाले कोरबा पहाड़ी कोरबा कहलाते हैं तथा मैदानी क्षेत्रों के कोरबा डीह कोरबा कहलाते हैं। मिर्जापुर के कोरबा अपने को डीह कोरबा तथा पहाड़ी कोरबा के अतिरिक्त डंड कोरबा श्रेणियां बताते हैं।
शरीर
कोरबा कम ऊंचाई के तथा काले रंग के लोग हैं। ये मजबूत यष्टि वाले लोग हैं किन्तु उनके पैर शरीर की तुलना में कुछ छोटे दिखई पड़ते हैं। पुरूषों की औसत ऊंचाई 5 फिट 3 इंच तथा महिलाओं की 4 फिट 9 इंच पायी जाती है। पहाड़ी कोरबाओं की दाढ़ी और मूंछों के अलावा शरीर के बाल भी बड़े रहते हैं। साधारणत: वे कुरूप दिखलाई देते हैं।
सामाजिक संगठन
इनकी अपनी पंचायत है जिसे "मैयारी" कहते हैं। सारे गांव के कोरबाओं के बीच एक प्रधान होता है जिसे 'मुखिया" कहते हैं। बड़े-बुढ़े तथा समझदार लोग पंचायत के सदस्य होते हैं। पंचायत का फैसला सबको मान्य होता है। इनका घर बहत ही साधारण होता है। ये जंगल में घास-फूस से बने छोटे-छोटे घरों में रहते हैं। जो लोग गांव में बस गए हैं, वे बांस और लकड़ी के घर बनाते और खपरैल तथा पुआल से छाते हैं।
पहाड़ी कोरबा पहले बेआरा खेती (शिफ्टिंग कल्टिवेशन) भी करते थे, लेकिन सरकारी नियमों के तरह इस प्रकार की खेती पर बंदिश है। डीह कोरबा साधारण खेती करते हैं। कोरबा जनजाति की एक उपजाति कोरकू है और जिस तरह सतपुड़ा की दूसरी कोरकू जनजाति मुसाई भी कहलाती है उसी तरह कोरकू भी "मुसाई" नाम से पहचाने जाते हैं। जिनका शाब्दिक अर्थ है चोर या डकैत। कूक कोरबा और कूक को एक ही जनजाति के दो उपभेद मानते हैं। जबकि ग्रिमर्सन भाषा के आधार पर उनकी भाषा को असुरों के अधिक निकट पाते हैंं। कोरबा लोगों में "मांझी" सम्मान सूचक पदवी मानी जाती है। संथालों में भी ऐसा ही है।
पहाड़ी कोरबा मध्यप्रदेश की आदिम जातियों में से है जिसका जीवन-स्तर तथा विकास अत्यंत ही प्रारंभिक व्यवस्था में हैं। यह उनके जीवन के प्रत्येक कार्यकलापों में देखा जा सकता है। रहन-सहन के मामले में वे शारीरिक स्वच्छता से कोसों दूर हैं। उनके सिर के बाल मैल के कारण रस्सी जैसी लटाओं में परिवर्तित हो जाती है। महिलाओं के कपड़े निहायत गंदे रहेते हैं। शरीर के अंग प्रत्यंगों पर मैल की परत पायी जाती है। महिलाएं आभूषण के आधार पर केवल लाल रंग की चिन्दियां सिर पर बांध लेती है। उनकी सामाजिक मान्यताएं भी अन्य आदिवासियों की तुलना में काफी पिछड़ी हुई है , जैसे कहा जाता है कि पहाड़ी कोरबा कुछ परिस्थितियों में बहन से भी विवाह कर सकते हैं। पहाड़ी कोरबा में विवाह के लिए माँ-बाप की अनुमति की आवश्यकता नहीं है।
शिकार प्रियता के साथ शिकार से संबंधित उनके अंधविश्वास ओर टोने-टोटके भी हैंं, जैसे शिकार प्रियता के साथ शिकार से संबंध्धित उनके अंधविश्वास ओर टोने-टोटके भी हैंं, जेसे शिकार यात्रा के समय बच्चे का रोना अशुभ माना जाता है। कुण्टे महोदय के अनुसार शिकार यात्रा पर जाते समय एक व्यक्ति ने अपने दो वर्षीय बच्चे को पत्थर पर पटक दिया क्योंकि उसने रोना चालू कर दया था। इसी भांति वे शिकार की यात्रा के पूर्व मुर्गों के सामने अन्न के कुछ दाने छिटका देते हैं। यदि मुर्गों ने ठोस दाने को पहले चुना तो यात्रा की सफलता असंदग्धि मानी जाती है। कोरबा के लोगों में किसी प्रकार के आदर्श को महत्व नहीं दिया जाता, जंगल का कानून ही उनकी मानसिकता है। 
इन क्षेत्रों में जलाऊ लकड़ी का विशेष महत्व है। शीतकाल में आदिवासी लकड़ जलाकर ही उष्णता प्राप्त करते हैं। नगद पैसा उन्हें अधिकतर अचार की चिरौंजी से मिलता है। चिरौंजी की मांग तथा मूल्य दोनों में लगातार वृद्धि हो रही है। ये लोग जड़ी-बूटियों को बेचना तो दूर उनके बारे में किसी अन्य को बताना भी पसंद नहीं करते।

.कमार (मुख्य रूप से रायपुर जिला)

1961 और 1971 में की गई कमारों की जनसंख्या का जिलेवार विवरण प्राप्त है। जिसके अनुसार कमार लगभग 10 प्रतिशत ग्रामीण अधिवासी में रहने वाले आदिवासी हैं।
रायपुर जिले के कमार विशेष पिछड़े माने गए हैं। इस जिले में वे बिंद्रावनगढ़ और धमतरी तहसील में पाए जाते हैं। कमार विकास अभिकरण का मुख्यालय गरिमा बंद में है जिसके अंतर्गत घुरा, गरियाबंद, नातारी ओर मैनपुर विकास खंड कमारों की मूलभूमि है जहाँ से वे बाहर गए या मजदूरों के रूप में ले जाए गए।
19वीं सदी तक कमार अत्यंत पिछड़ी हुई अवस्था में थे।उनमें से कुछ विवरण अब संदेहास्पद लगने लगे, जैसे कतिपय अंग्रेजी लेखकों ने इन्हें गुहावासी बतलाया है। आज के समय में मध्यप्रदेश के वनों या पर्वतों में कोई भी आदिवासी समूह गुहावासी नहीं है। लिखे गए उपयुक्त अंशों में वर्तमान में उनके व्यवसायों मेंटोकरी बनाना भी सम्मिलित हैं। जिसमें उन्हें बसोरों से प्रतिस्पर्धा करना पड़ती है। शासकीय सहायता योजना के अंतर्गत उन्हें कम दामों में बांस उपलब्ध कराया जाता है और चटाईयाँ एवं टोकरियाँ की सीधे ही खरीद की जाती हैं। बदलते जमाने में कमारों ने कृषि करना भी सीख लिया है और 1981 में 444 कमार परिवारों के पास स्वयं की छोटी ही सही कृषि भूमि थी। कमारों के दो उप भेद है-बुधरजिया और मांकडिया। बुधरजिया उच्च वर्ग के माने जाते हैं, जबकि मांकडिया निम्न वर्ग के। ये बंदरों का मांस खाते थे। दोनों ही वर्ग कृषि करने लगे हैं।

. अबूझमाड़िया (बस्तर जिला)

अबूझमाड़िया या हिल माड़िया बस्तर के अबूझमाड़ क्षेत्र में बसे हैं। इनका वर्णन इस पुस्तक में अन्यत्र भी दिया गया है। इनकी अधिकतर जनसंख्या नारायणपुर तहसील में है। इनके गांव अधिकतर नदियों के किनारे अथवा पहाड़ी ढलानों पर पाए जाते हैं। प्रत्येक घर के चारों ओर एक जाड़ी होती है। जिसमें केला, सब्जी और तम्बाकू उगाई जाती है। इनके खेत ढलवा भूमि में होते हैं जिनमें धान उगाया जाता है। जंगली क्षेत्रों को साफ करते समय यह ध्यान रखा जाता है कि क्षेत्र में बांस अधिकता से न पाए जाते हों, क्योंकि बांसों के पुन: अंकुरित होने का खतरा रहता है। अबूझमाड़िया स्थानांतरी कृषि करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को साधारणत: अपनी आवश्यकता की भूमि प्राप्त हो जाती है। जंगलों में कृषि की भूमि का चुनाव करते समय गांव का मुखिया यह निर्णय देता है कि किस व्यक्तित को कितनी भूमि चाहिए और वह कहाँ होगी। जंगल सफाई का काम सामूहिक रूप से किया जाता है। खेतों में अलग-अलग बाड़ नहीं बनाई जाती है तरन पूरे (पेंडा) को घेर लिया जाता है। भेले ही वह 200 या 300 एकड़ का हो। यह बड़ा 'बाड़ा' अत्यधिक मजबूत बनाया जाता है। यहाँ के जंगलों में केवल सुअर ही इन बांड़ों में घुसने का प्रयत्न करते है जिन से रखवाली करने के लिए मचान बनाए जोते हैं। धान के अतिरिक्त चमेली, गटका, कसरा, जोधरा इत्यादि मोटे अनाज उगाए जाते हैं, जिन्हें जंगली सुअरों से विशेष नुकसान पहुँचता है। अबूझमाड़ का "बाइसन होर्न" नृत्य प्रसिद्ध है। हिंदुस्तान में कहीं भी बाइसन नहीं पाया जाता है। दरअसल अबूझ माड़िए गाय या भैंस के सींग लगाकर नाचते हैं। गांव पहाड़ियों की चोटियों पर बसाए जाते हैं। कोशिश की जाती है कि तीन ओर से पर्वत हो और एक ओर से नदी। यद्यपि अब इस प्रकार की स्थिति में कुछ परिवर्तन आ रहा है। अबूझमाड़ के भौगोलिक क्षेत्र के नामकरण में गांव का महत्वपूर्ण हाथ है। साधारणत: प्रमुख गाँवों का बाहरी हिस्सा 'मड' या बाजार के काम में लाया जाता है। इन बाजारों में निश्चित ग्रामों से अबूझमाड़ी आते हैं। दूसरे शब्दों में ये 'मड' एक सुनिश्चित आर्थिक प्रभाव क्षेत्र को बतलाते हैं।
अबूझमाड़ बस्तर जिले का एक प्राकृतिक विभाग है जिसमें बहुत सी पर्वतीय चोटियाँ गुंथी हुई प्रतीत होती है। इनमें क्रम नहीं दिखाई पड़ता, अपितु चारों तरफ घाटियाँ और पहाड़ियों का क्रम बढ़ता नजर आता है। इन पहाड़ियों के दोनों ओर जल विभाजक मिलते हैं, जिनसे निकलने वाली सैकड़ों नदियाँ क्षेत्र की ओर भी दुर्गम बना देती हैं। पहाड़ियों की ऊँचाई धरा से 1007 मीटर तक हैं कुल मिलाकर 14 पहाड़ियों की चोटियाँ 900 मीटर से अधिक ऊँची हैं। भूगोल की भाषा में इन पहाड़ियों में अरोम प्रणाली है, किंतु यह सब छोटे पैमाने पर है। कुल क्षेत्र की प्रवाह प्रणाली तो पादपाकार ही है। बड़ी नदियों के नाम क्षेत्र के मानचित्रों में मिल जाते हैं, पर छोटी नदियाँ अनामिका हैं। अबूझमाड़ियों ने अपनी बोली में इन छोटी से छोटी नदियों को कुछ न कुछ नाम दे रखे हैं और सभी नामों के पीछे नदी सूचक शब्द मुण्डा जुड़ा रहता है, ठीक वैसे ही, जैसे चीनी भाषा में क्यांग। चीनी भाषा में चांग सी क्यांग और सी क्यांग का अर्थ चांग सी नदी और सी नदी है। कुछ ऐसी ही अबूझमाड़ में। यहाँ कुछ छोटी नदियों के नाम हें, कोरा मुण्डा, ओर मुण्डा, ताल्सि मुण्डा इत्यादि। इन्हें क्रमश: कोरा नदी, ओर नदी तथा तालिन नदी भी कहा जा सकता है। न केवल नदियों के लिए हिम माड़ियाँ की अपनी भाषा में अलग शब्द हैं, बल्कि पर्वतों को भी वे कोट, कोटि या पेप कहते हैं, जैसे धोबी कोटी, कंदर कोटी, क्या कोटी और राघोमेट। उपर्युक्त शब्दां की रचना से प्रतीत होता है कि संस्कृत का पर्वतार्थी शब्द 'कूट' हो न हो, मुड़िया भाषा की ही देन है। कंदर से कंदरा शब्द की उत्पत्तित भी प्रतीत होती है।

सहरिया (ग्वालियर संभाग)

सहरिया का अर्थ है शेर के साथ रहने वाला। सहरिया जनजाति का विस्तार क्षेत्र अन्य जनजातियों के छोटे क्षेत्रों की तुलना में भिन्न प्रकार का है। यह जनजाति मध्यप्रदेश के उत्तर पश्चिमी जिलों में फैली हुई है। यह जनजाति आधुनिक ग्वालियर एवं चंबल संभाग के जिलों में प्रमुखता से पाई जाती है। इन संभागों के जिलों में इस जनजाति की जनसंख्या का 84.65 प्रतिशत निवास करता है। शेष भाग भोपाल, सागर, रीवा, इंदौर और उज्जैन संभागों में निवास करता है। पुराने समय में यह समस्त क्षेत्र वनाच्छादित था और यह जनजाति शिकार और संचयन से अपना जीवन-यापन करती थी किंतु अब अधिकांश सहरिया या तो छोटे किसान हैं या मजदूर। इनका रहन-सहन और धार्मिक मान्यताएँ क्षेत्र के अन्य हिंदू समाज जैसी ही हैं किंतु गोदाना गुदाने की परंपरा अभी भी प्रचलित है। सहरिया जनजाति होने के कारण मोटे अन्न पर निर्भर हैं। शराब और बीड़ी के विशेष शौकीन है।
सहरिया लोगों के स्वास्थ्य परीक्षण का कार्य 2-3 वर्षों में (1990-92) सघन रूप से चला। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की शाखा आर.एम.आर.सी. के निदेशक डॉ. रविशंकर तिवारी बतलाते हैं कि सहरिया लोगों में क्षय रोग साधारण जनता की तुलना में कई गुना अधिक विद्यमान है, यह भ्रांति तोड़ता है कि क्षय रोग जनजातियों में कम पाया जाता है।

पारधी
पारधी मराठी शब्द पारध का तद्भव रूप है जिसका अर्थ होता है आखेट। मोटे तौर पर पारधी जनजाति के साथ बहेलियों को भी शामिल कर लिया जाता है। अनुसूचित जनजातियों की शासकीय सूची में भी पारधी जनजाति के अंतर्गत बहेलियों को सम्मिलित किया गया है। मध्यप्रदेश के एक बड़े भाग में पारधी पाए जाते हैं। पारधी और शिकारी में मुख्य अंतर यह है कि शिकारी आखेट करने में बंदूकों का उपयोग करते हैं जबकि पारधी इसके बदले जाल का इस्तेमाल करते हैं। पाराकीयों द्वारा बंदूक के स्थान पर जाल का उपयोग किन्हीं धार्मिक विश्वासों के आधार पर किया जाता है। उनका मानना है कि महादेव ने उनहें वन पशुओं को जाल से पकड़ने की कला सिखाकर बंदूक से पशुओं के शिकार के पाप से बचा लिया है। फिर भी इनके उपभेद भील पारधियों में बंदूक से शिकार करने में कोई प्रतिबंध नहीं है। भील पारधी भोपाल, रायसेन और सीहोर जिलों में पाए जाते हैं।
पारधियों के उपभेद
गोसाई पारधी : गोसाई पारधी गैरिक वस्त्र धारण करते हैं। तथा भगवा वस्त्रधारी साधुओं जैसे दिखाई देते हैं। ये हिरणों का शिकार करते हैं।
चीता पारधी : चीता पारधी आज से कुछ सौ वर्ष पूर्व तक चीता पालते थे किंतु अब भारत की सीमा रेखा से चीता विलुप्त हो गया है। अतएव अब चीता पारधी नाम का पारधियों का एक वर्ग ही शेष बचा है। चीता पारधियों की ख्याति समूची दुनिया में थी। अकबर और अन्य मुगल बादशाहों के यहाँ चीता पारधी नियमित सेवक हुआ करते थे। जब भारत में चीता पाया जाता था तब चीता पारधी उसे पालतू बनाने का कार्य करते और शिकार करने की ट्रनिंग देते थे। किंतु यह सब बाते हैं बीते युग की जब चीते और पारधियों का एक चित्र हजारों पौंड मूल्य में यूरोप में खरीदा गया।
भील पारधी : बंदूकों से शिकार करने वाले।
लंगोटी पारधी : वस्त्र के नाम पर केवल लंगोटी लगाने वाले पारधी।
टाकनकार और टाकिया पारधी : सामान्या शिकारी और हांका लगाने वाले पारधी।
बंदर वाला पारधी : बंदर नचाने वाले पारधी।
शीशी का तेल वाले पारधी : पुराने समय में मगर का तेल निकालने वाले पारधी।
फांस पारधी : शिकार को जाल में पकड़ने वाले।
बहेलियों का भी एक उपवर्ग है जो कारगर कहलाता है। यह केवल काले रंग के पक्षियों का ही शिकार करता है। इनके सभी गोत्र राजपूतों से मिलते हैं, जैसे सीदिया, सोलंकी, चौहान और राठौर आदि। सभी पारधी देवी के आराधक है। लंगोटी पारधी चांदी की देवी की प्रतिमा रखते हैं। यही कारण है कि लंगोटी पारधियों की महिलाएँ कमर से नीचे चांदी के आभूषण धारण नहीं करती और न ही घुटनों के नीचे धोती, क्योंकि ऐसा करने से देवी की बराबरी करने का भाव आ जाता है यह उनकी मान्यता है।
अगरिया
अगरिया विशष उद्यम वाली गोधे की उप जनजाति है अगरिया मध्यप्रदेश के मंडला, शहडोल तथा छत्तीसगढ़ के जिलों एवं इण्डकारण्य में पाए जाते हैं। अगरिया लोगों के र्प्रमुख देवता 'लोहासूर' हैं जिनका निवास धधकती हुई भट्टियों में माना जाता है। वे अपने देवता को काली मुर्गी की भेंट चढ़ाते हैं। मार्ग शीर्ष महीने में दशहरे के दिन तथा फाल्गुन मास में लोहा गलाने में प्रयुक्त यंत्रों की पूजा की जाती है। इनका भोजन मोटे अलाज और सभी प्रकार के मांस है। ये सुअर का मांस विशेष चाव से खाते हैं। इनमें गुदने गुदवाने का भी रिवाज है। विवाह में वधु शुल्क का प्रचलन है। यह किसी भी सोमवार, मंगलवार या शुक्रवार को संपन्न हो सकता है। समाज में विधवा विवाह की स्वीकृति है। अगरिया उड़द की दाल को पवित्र मानते हैं और विवाह में इसका प्रयोग शुभ माना जाता है।
जिस तरह प्राचीन काल में ये असुर जनजाति कोलों के क्षेत्रों में लुहार का कार्य संपन्न करते रहे हैं, उसी भांति अगरिया गोंडों के क्षेत्र के आदिवासी लुहार हैं। ऐसा समझा जाता है कि असुरों और अगरियों दोनों ही जनजातियों ने आर्यों के आने के पूर्व ही लोहा गलाने का राज स्वतंत्र रूप से प्राप्त कर लिया था। अगरिया प्राचीनकाल से ही लौह अयस्क को साफ कर लौह धातु का निर्माण कर रहे हैं। लोहे को गलाने के लिए अयस्क में 49 से 56 प्रतिशत धातु होना अपेक्षित माना जाता है किंतु अगरिया इससे कम प्रतिशत वालीं धातु का प्रयोग करते रहे हैं। वे लगभग 8 किलो अयस्क को 7.5 किलां चारकोल में मिश्रित कर भट्टी में डालते हैं तथा पैरो द्वारा चलित धौंकनी की सहायता से तीव्र आंच पैदा करते हैं। यह चार घंटे तक चलाई जाती है तदंतर आंवा की मिट्टी के स्तर को तोड़ दिया जाता है और पिघले हुए धातु पिंड को निकालकर हथौड़ी से पीटा जाता है। इससे शुद्ध लोहा प्राप्त होता है तथा प्राप्त धातु से खेतों के औजार, कुल्हाड़ियाँ और हंसिया इत्यादि तैयार किए जाते हैं।
खैरवार
खैरवार मुंडा जनजाति समूह की एक प्रमुख जनजाति है। खैरवार अपना मूल स्थान खरियागढ़ (कैमूर पहाड़ियाँ) मानते हैं, जहाँ से वे हजारी बाग जिले तक पहूँचे। विरहोर स्वयं को खैरवान की उपशाखा मानते हैं। मिर्जापुर और पालामऊ मे खैरवार स्वयं को अभिजात्य वर्ग का मानते हैं और जनेऊ धारण करते हैं। दरअसल अपने विस्तृत विवतरण क्षेत्र में खैरवारों के जीवन-स्तर में भारी अंतर देखने को मिलता है। जहाँ एक ओर छोटा नागपुर में उन्होंने लगभग सवर्ण जातीय स्तर को प्राप्त किया वहीं अपने मूल स्थान मध्यप्रदेश के अनेक हिस्सें में ये विशिष्ट धन्यों वाले आदिवासी के रूप में रह गए।
मध्यप्रदेश के कत्था निकालने वाले खैरवान
मध्यप्रदेश के बिलासपुर, मंडला, सरगुजा और विंध्य क्षेत्र में कत्था निकालने वाले खैरवारों को खैरूआ भी कहा जाता है। खैरवान कत्था निकालने के अतिरिक्त वनोपज संचयन तथा मजदूरी का कार्य भी करते हैं। मध्यप्रदेश के उन भागों में जहाँ खैरवान स्थाई रूपसे निवास करते हैं, कत्था निकालने के मौसम के पूर्व ही जंगलों में पहुँच जाते हैं और अस्थाई मकान बना लेते हैं तथा काम पूरा होने के बाद झोपड़ियों को छोड़कर फिर अपने-अपने मूल ग्राम की ओर लौट जाते हैं।
परिका (पनका)
पनका द्रविड़ वर्ग की जनजाति है। छोटा नागपुर में यह पाने जनजाति के नाम से जानी जाती है। ऐसा कहा जाता है। कि संत कबीर का जन्म जल में हुआ था और वे एक पनका महिला द्वारा पाले-पोसे गए थे। पनका प्रमुख रूप से छत्तीसगढ़ और विन्ध्य क्षेत्र में पाए जाते हैं। आजकल अधिसंख्य पनका कबीर पंथी हैं। ये 'कबीरहा' भी कहलाते हैं। ये मांस-मदिरा इत्यादि से परहेज करते हैं। दूसरा वर्ग 'शक्ति पनका' कहलाता है। इन दोनों में विवाह संबंध नहीं है। इनके गोत्र टोटम प्रधान हैं, जैसे धुरा, नेवता, परेवा आदि। कबीर पंथी पनकाओं के धर्मगुरू मंति कहलाते हैं जा अक्सर पीढ़ी गद्दी संभालते हैं। इसी प्रकार दीवान का पद भी उत्तराधिकार से ही प्राप्त होता है। एक गद्दी 10 से 15 गांवों के कबीरपंथियों के धामिर्क क्रियाकलापों की देख-रेख करती है। कबीरदास जी को श्रद्धा अर्पण के उद्देश्य से माघ और कार्तिक की पूर्णिमा को उपवास रखा जाता है। कट्टर कबीर पंथी देवी-देवताओं को नहीं पूजते किंतु शक्ति पनिका अनेक देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। कबीरहा पनका महिला एवं पुरूष श्वेत वस्त्र तथा गले में कंठी धारण करते हैं। अन्य आदिवासी की तुलना में छत्तीसगढ़ के पनका अधिक प्रगतिशील हैं। इनमें से कई बड़े भूमिपति भी हैं, किन्तु ये कपड़े बुनने का कार्य करते हैं। गरीब पनके हरवाहों का काम करते हैं। पनका जनजाति मूल रूप से कपड़ा बुनने का कार्य करती है।